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कविता: वो मंत्र नमो है

Tuesday, August 21, 2012

एक पत्र बचपन के नाम

चित्र गाँव की सैर के दौरान हमने ही खींचा था अपने मोबाइल से  
प्यारे भूले बिसरे बचपन 
सादर धूमधड़ाकस्ते! 
                          आज गली में नन्हें मुन्हें बच्चों को मस्ती से खेलते देखा तो अचानक ही तुम याद आ गये. वो भी क्या दिन थे जब तुम थे. अपने छोटे-छोटे दोस्तों के साथ सुबह से शाम कब हो जाती थी पता ही नहीं चलता था. सुबह से दोपहर तक स्कूल में अपने  साथी छात्रों के साथ पढ़ते-लिखते और मस्ती करते थे. स्कूल से आते ही घर में बैग रखा और अपने दोस्तों के साथ घर से गायब. कभी गुड्डे-गुड़ियों की शादी में बाराती या घराती बनना तो कभी चोर पुलिस के खेल में चोर या पुलिस का किरदार निभाना. पकड़म-पकड़ाई, मारम-पिट्टी, फुटबाल व क्रिकेट आदि खेलों द्वारा पसीना बहाना नियम सा बन गया था. छोटी-छोटी बातों पर भाई-बहिनों व दोस्तों से कट्टी कर लेना लेकिन बाद में मान भी जाना. न किसी प्रकार का बैर भाव न ही कोई भेदभाव.  क्या खूब था बचपन. शाम को जब हम पूरे दिन खेलने के बाद भूत बनकर घर पहुँचते थे तो माँ की पिटाई से स्वागत होता था. लेकिन जब माँ प्यार से खाना खिलाती थी तो वही पिटाई मरहम बन जाती थी. कितना मजा आता था जब पिताजी कान मरोड़ कर ढंग से पढाई करने की हिदायत देते थे. रात होती थी तो किस्सों में परीलोक की सैर करते हुए हम नींद के सागर में समा जाते थे. अगला दिन होता तो फिर हम सबकी वही क्रिया आरंभ हो जाती थी. जब गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ती थी तो हमारी मानो लॉटरी ही खुल जाती थी. गाँव में अपने दोस्तों के मस्ती और धमा चौकड़ी करने का हमें सुनहरा अवसर मिल जाता था. गर्मियों की छुट्टियों में न पढाई की टेंशन होती थी न ही होमवर्क का चक्कर. गाँव के प्राकृतिक वातावरण में दिन बड़े सुहाने बीतते थे. वहाँ तो पूरा दिन ही व्यस्त होता था. सुबह तितली के पीछे भागने से शुरुआत होती थी और गिल्ली-डंडा, पाला व लंबी कूंद करते-करते दोपहर होती थी. गर्मी से राहत पाने के लिए आम के बाग में दोपहर बिताना कितना आनंददायक होता था. वहीं तोते के कुतरे हुए आम खाना और आम पेड़ की डाल पर झूला डालकर झूलना और थकान होने पर थककर वहीं पेड़ की छांव में कुछ पल के लिए सो जाना. आहा क्या मौज थी क्या मस्ती थी उन दिनों जब तुम थे. गाँव में रात के अंधेरे में चमकते जुगनुओं को भागकर पकडना और मुठ्ठियों में छुपाकर अपनी चमकती मुठ्ठियों को दोस्तों को दिखाकर उन्हें आकर्षित करने का आनंद भी कुछ और ही था. उन दिनों क्या स्टेमिना था और क्या हाजमा था. कुछ भी खाओ झट से हजम. कितना भी खेलो कोई थकान नहीं. बारिश की पहली फुहार का आनंद तो  बचपन में ही पूरी तरह भीगकर ही आता था. बारिश के पानी में कागज की नाव बना चलाना और अपने साथियों से आगे नाव ले जाने की कशमकश व जद्दोजहद में कुछ न कुछ  खास बात तो थी. अब न वो मस्ती रही न वो अल्हडपन. इस रफ्तार से भागते जीवन में जब फुरसत  के कुछ पल मिलते है तो एक गीत की निम्नलिखित पक्तियाँ दिल गुनगुनाने लगता है--

ये दौलत भी ले लो 
ये शोहरत भी ले लो 
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी 
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती
वो बारिश का पानी...

काश! तुम फिर से लौट पाते

तुम्हारी यादों में खोया 
एक युवा
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