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शोभना सम्मान-2012

Saturday, June 8, 2013

व्यंग्य: आतंकी का साक्षात्कार

“राम-राम साब!”
“ए कमबख्त तुम क्या बोलती? इस नाम से हमारा दुश्मनी है और तुम इसका नाम ले रही है.”
“माफ करें आतंकी साब.”
“तुम फिर गलती करती. हम आतंकी नहीं ज़िहादी होती.”
“ठीक है साब लेकिन पुल्लिंग को स्त्रीलिंग बनाना क्या गलती नहीं है?”
“तुम क्या बोली मैं समझी नहीं.”
“साब मैं तो यह पूछ रहा था, कि राम का नाम सुनते ही आप नाराज़ क्यों हो गए?”
“हम नाराज़ हुई क्योंकि हम मुसलमान होती और हम राम को नहीं अल्लाह को मानती.”
“किन्तु मैंने तो यह पढ़ा है, कि प्राचीन काल में पूरे विश्व में हिंदू धर्म ही था और हम सबके पूर्वज हिंदू थे. इस प्रकार हम भाई-भाई हुए.”
“क्या बकवास करती.”
“मैंने तो यह भी सुना है, कि हिंदुस्तान से लेकर यूरोप तक राम भक्तों द्वारा राम के नाम पर 32 शहर बसाये गए थे, जिनमें से एक रामल्लाह शहर अभी भी अरब में मौजूद है.”
“हम तुमको साफ-साफ समझाती, कि राम को छोड़कर अल्लाह की बात करो. वरना.”
“अच्छा ठीक है. चलिए यह बताइए कि अल्लाह कौन है?”
“अल्लाह को तुम नहीं जानती. वो ही इस ज़मीं और आसमां को बनाई. इस ज़मीं पर रहने वाले पेड़-पौधों और इंसान यानि हम-तुम को बनाई.”
“तो राम भी तो ईश्वर या आपकी भाषा में अल्लाह के ही रूप हैं.”
“क्या उल-जलूल बकती है? अगर तुम हमारा इंटरव्यू न ले रही होती तो तुम्हारा खोपड़ी में अपनी ए.के.-47 रायफल की पूरी मैग्जीन खाली कर देती.”
“अरे सरकार इतना नाराज़ न हों. हम ठहरे लेखक. आपको इससे मतलब हो या न हो, लेकिन हम तर्क-वितर्क करने के आदी हैं.”
“ये तर्क-वितर्क क्या चीज होती?”
“ये वो चीज है जो आप सबकी शब्दावली में नहीं है. अच्छा एक बात बताइए, कि क्या ईश्वर और अल्लाह अलग-अलग हैं?”
“हाँ बिल्कुल अलग-अलग होती.”
“आप कहते हैं कि ये जमीं और आसमां आपके अल्लाह ने बनाये, हम कहते हैं कि ये हमारे ईश्वर ने बनाये और अन्य धर्म के मानने वाले कहते हैं, कि इन्हें उनके परमात्मा ने बनाया. ज़मीं और आसमां बनाने वाले कई और बने हैं सिर्फ एक. ये चक्कर क्या है?”
“ए तुम इंटरव्यू लेने आई है या फिर दिमाग घुमाने?”
“जी ऐसा कुछ नहीं. जिसे आप घुमाने की शिकायत कर रहे हैं, उसका तो शायद पहले ही राम नाम सत्य हो चुका है.”
“तुम क्या बोली?”
“जी कुछ नहीं. क्या आप बताने का कष्ट करेंगे, कि ज़िहाद किसे कहते हैं?”
“ज़िहाद का मतलब होती अपनी कौम और मज़हब के लिए ज़ंग करना.”
“अपनी कौम और मज़हब के लिए आप किससे ज़ंग कर रहे हैं?”
“हम तुम काफिरों से जंग करती.”
“आपका मकसद क्या है?’
“हम पूरी दुनिया में अपना मज़हब फैलाना चाहती.”
“उससे क्या होगा?”
“जब सब लोग हमारा मज़हब अपना लेगी, तो दुनिया में सब लोग मोहब्बत और भाईचारे से रहेगी.”
“मोहब्बत और भाईचारे से तो हम सब अब भी रह रहे हैं.”
“नहीं अभी तुम लोग काफ़िर है और हम काफिरों के साथ मोहब्बत और भाईचारे के साथ नहीं रह सकती.”
“आप नहीं रह सकते, लेकिन आपके मज़हब को मानने वाले तो ऐसा नहीं मानते. वो तो बड़े प्रेम व मेलजोल के साथ हमारे साथ रहते हैं.”
“तुम सब काफिरों के साथ रहते-रहते उनका अक्ल मारा गया है.”
“अच्छा ये तो बताइए, कि जब आप अपनी कौम और मज़हब के लिए ज़िहाद कर रहे हैं, तो अपने मज़हब वालों की हत्या क्यों करते हैं?”
“हम उन्हें इसलिए हलाक करती, क्योंकि वो तुम काफिरों का साथ देती.”
“आप को पता है कि आपने ज़िहाद के नाम पर अपने मज़हब को मानने वालों को सबसे अधिक हलाक किया है.’
“तुम ये सब क्या बोलती?”
“ये मैं नहीं बोल रहा हुज़ूर. ये आँकड़े बोल रहे हैं. ज़िहाद का लबादा ओढ़े हुए आप सभी आतंकियों माफ कीजिए जिहादियों ने दूसरी कौम के मुकाबले अपनी कौम के लोगों का जो कत्लेआम किया है, इस सबको जानकर आपके ज़िहाद के ड्रामे की हकीकत सामने आ जाती है.”
“तुम सरासर झूठ बोलती.”
“तो आप ही सोचकर बताइए, कि सच क्या है?”
“ये सोचना हम नहीं जानती. हम सिर्फ गोली चलाना जानती.”
“फिर आप मज़हब के बारे में इतनी बड़ी-बड़ी बातें कैसे कर लेते हैं?”
“ये सब हमारा मजहब की पाक किताब में लिखी है.”
“आपने उसे ठीक ढंग से पढ़ा है?”
“नहीं हम उसको रटा है.”
“किसने आपको आपकी किताब रटवाई?”
“हम बचपन में जहाँ पढ़ती थी, वहीं हमको ये किताब रटवाया गया.”
“आपको कभी डर नहीं लगता कि आप ज़िहाद करते हुए कहीं मारे गए तो?”
“नहीं हम नहीं डरती, क्योंकि ज़िहाद करते हुए हम मारी गई तो हमको जन्नत में 72 हूर मिलेगा.”
“क्या किसी आत्मा या रूह ने वहाँ से लौटकर आपको ये सब बताया है, कि 72 हूरें ही मिलेंगी? उनकी जगह 72 चुड़ैलें भी तो हो सकती हैं.”
“किसी रूह ने नहीं बताई. ये बात हमको हमें पढ़ाने वाले ने बोली थी. इसीलिए हम ज़िहादी बनी और अपना कौम वालों को भी जिहादी बनाई.”
“जिसने भी ये सब बोला होगा, उसने आपको इस धरतीरुपी जन्नत पर बसने वाली हूरों से दूर करने के लिए बोला होगा. अगर आप उसकी बात न मानते तो आपकी ज़िंदगी में भी कोई न कोई हूर होती और अपने बाल-बच्चों के साथ आपकी यह जिंदगी खुशी से भरपूर होती.”
“तुम हद से ज्यादा बोलती. अब हम इतना ही इंटरव्यू देगी. ए असलम इसको इसके ठिकाने पर भिजवा दो और कुछ शराब और शबाब का इंतज़ाम करो. हम ज़न्नत में जाने से पहले ही हूर का मजा लेगी.”
“जनाब आप तो ज़िहाद की बात कर रहे थे. फिर ये शराब और शबाब कहाँ से आ गए?”
“ज़िहाद करने की ताकत पाने के लिए ही शराब और शबाब है.”
“इसका मतलब है कि आप ज़िहाद के नाम पर जिंदगी के मजे लूट रहे हैं.”
“हा हा हा सही बोली. जब तक ज़िहाद का साथ देने वाला हमारी कौम में उल्लू मौज़ूद रहेगी, तब तक हम ज़िहाद के नाम पर मजा लूटती रहेगी.”
“आप ज़िहाद के नाम पर अपनी कौम को मूर्ख बना रहे हैं?”
“ठीक पहचानी. अब तुमको जिंदा रखना ठीक नहीं. ए खालिद इसका खोपड़ी गोलियों से भर दे.”
“लेकिन आपने वादा किया था, कि लेखकों को नहीं मारेंगे.”
“जब हम अपना कौम से वादा नहीं निभाई, तो तुम जैसे काफिर से क्या निभाएगी?”
और खालिद ने मेरी खोपड़ी में गोलियाँ मारनी शुरू कर दीं. गोलियाँ खाते-खाते बिस्तर से लुढककर नीचे ज़मीन में धड़ाम से जा गिरा. आँख खुली तो कराहते हुए बैठा-बैठा सोचने लगा, कि काश यह सपना सच होता और इसका लाइव टेलीकास्ट पूरी दुनिया में हो रहा होता. फिर ज़िहाद के नाम पर प्रहलाद करने वालों का सच शायद यह संसार जान पाता.

सुमित प्रताप सिंह
इटावा, नई दिल्ली 
चित्र गूगल बाबा से साभार