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Sunday, February 24, 2013

शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान प्रविष्टि संख्या - 9

इलज़ाम न दो

आरोप निराधार नहीं 

सचमुच तटस्थ हो चुकी हूँ 
संभावनाओं की सारी गुंजाइश मिटा रही हूँ 
जैसे रेत पे ज़िंदगी लिख रही हूँ
मेरी नसों का लहू आग में लिपटा पड़ा है 
पर मैं बेचैन नहीं
जाने किस मौसम का इंतज़ार है मुझे?
आग के राख में बदल जाने का 
या बची संवेदनाओं से 
प्रस्फुटित कविता का
कराहती हुई 
इंसानी हदों से दूर चली जाने का
शायद इंतज़ार है 
उस मौसम का जब 
धरती के गर्भ की रासायनिक प्रक्रिया 
मेरे मन में होने लगे, 
तब न रोकना मुझे न टोकना 
क्या मालूम 
राख में कुछ चिंगारी शेष हो 
जो तुम्हारे जुनून की हदों से वाकिफ हो
और ज्वालामुखी-सी फट पड़े
क्या मालूम मुझ पर थोपी गई लाँछन की तहरीर 
बदल दे तेरे हाथों की लकीर
बेहतर है 
मेरी तटस्थता को इलज़ाम न दो
मेरी ख़ामोशी को आवाज़ न दो
एक बार 
अपने गिरेबान में झाँक लो ! 

रचनाकार: सुश्री जेन्नी शबनम


नई दिल्ली 

21 comments:

  1. कवि किशोर कुमार खोरेन्द्रFebruary 24, 2013 at 12:19 PM

    achchha laga

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  2. आशा ढौंडियालFebruary 24, 2013 at 3:23 PM

    baht sarthak prayas..

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  3. masoomshayerFebruary 24, 2013 at 3:43 PM

    advitiy hai bahut achee rachanaa

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  4. Vijay Kumar SappattiFebruary 24, 2013 at 4:38 PM

    सच तो यही है शबनम जी की हम सभी को उस लम्हे का इन्तजार है , जब कुछ नए का , कुछ नूतन का , जन्म हो ... बहुत अच्छी अभिव्यक्ति ... बहुत सारी भावनाए बस अब मुक्तता का इन्तजार कर रही है .. ये बहुत मुश्किल था , लेकिन आपकी कविता ने कर दिखाया . दिल से बधाई स्वीकार करे...!!
    विजय

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  5. रजनी मल्होत्रा नैय्यरFebruary 24, 2013 at 5:57 PM

    प्रस्तुत रचना के हर शब्द अपने आप में दहकते गोले हैं , जिन्हें पढ़कर ,समझकर , धधकती ज्वालामुखी सी मानसिक संवेदों को , आसानी से समझा जा सकता है | जेन्नी शबनम जी आपकी भावना के हर शब्द टंकार कर रही उस सुसुप्त चेतना को जिसे जगाने के लिए ये पंक्तियाँ पर्याप्त हैं " एक बार अपने गिरेबान में झांक लो"

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  6. ज्योति खरेFebruary 24, 2013 at 6:17 PM

    भीतर पनपता आक्रोश जिसे सहते सहते,मन में विद्रोह का ज्वालामुखी
    फूटना चाहता है पर अपनेपन की महीन लकीर इस ज्वालामुखी को बांध
    कर रखी है----चेतावनी देती कविता
    शबनम जी यह ज्वालामुखी अवश्य फूटेगा,आपको सार्थक रचना की बधाई

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  7. Udan TashtariFebruary 24, 2013 at 6:36 PM

    वाह, बहुत सलीके से बात कही...पसंद आई अभिव्यक्ति!

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  8. रेखा श्रीवास्तवFebruary 24, 2013 at 6:52 PM

    हर एक दिन में धधकती जवालामुखी किसी न किसी दिन भात कर ऐसा विस्फोट करेगी कि कहने को कुछ न रह जायेगी. इसा धधकती हुई ज्वालामुखी को व्यक्त करने के लिए आभार !

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  9. महेन्द्र श्रीवास्तवFebruary 24, 2013 at 7:18 PM

    अच्छी रचना है
    बहुत सुंदर

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  10. संजय ग्रोवर Sanjay GroverFebruary 24, 2013 at 7:34 PM

    तटस्थता है मगर तक़लीफ़ है, ग़ुबार है, कहीं उलझन भी है.......जब धुंआ हटेगा तो आग़ का रंग-ढंग समझ में आएगा...
    यानि बेचैनी और कशमकश कविता में क्या ख़ूब व्यक्त हुई है!

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  11. expressionFebruary 24, 2013 at 7:43 PM

    बहुत सुन्दर.....
    बेहतरीन अभिव्यक्ति जेन्नी जी...
    शुभकामनाएं.
    अनु

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  12. prritiy----snehFebruary 24, 2013 at 8:06 PM

    bahut achha likha hai, soch mein gehrai liye hue

    shubhkamnayen

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  13. Kailash SharmaFebruary 24, 2013 at 8:56 PM

    लाज़वाब....

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  14. RachanaFebruary 25, 2013 at 1:04 AM

    jenni ji sunder bhavon se saji uttam kavita hai aapki
    bahut bahuut badhai
    rachana

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  15. Shah NawazFebruary 25, 2013 at 10:19 AM

    वाह, अच्छी रचना जेन्नी शबनम जी।

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  16. NeelimaFebruary 25, 2013 at 10:43 AM

    बहुत सुन्दर

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  17. SankalpFebruary 25, 2013 at 5:07 PM


    जेनी जी,
    एक शानदार कविता के लिये बहुत बहुत बधाइयां। वाकई बहुत सुंदर अभिव्यक्ति... सीधे मन से उपजी... मन तक पहुंचती...

    लिखती रहिये,
    संकल्प

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  18. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)February 25, 2013 at 6:38 PM

    सुन्दर प्रस्तुति!

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  19. shikha varshneyFebruary 25, 2013 at 11:44 PM

    आपकी कवितायें कहीं अन्दर तक पैठ कर जाती हैं जेनी जी .

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  20. अरविन्द व्यासFebruary 26, 2013 at 1:00 AM

    बहुत खुब जीनी जी, आप खुबसुरत लिखती है
    जंग जरूरी है, जायज है, जब तलवार नहीं कागज है
    आप हमे पढते ही नहीं, इस बहाने पढलो सही
    मै बिचैन क्यो हूं,
    क्यो की मेरे शब्दो को चैन नहीं
    मै खुश क्यूं हूं क्यो की,
    मेरे शुभ शब्दो में कहीं रैन नहीं ... "प्यास"

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  21. Anupama TripathiFebruary 26, 2013 at 3:43 PM

    ऊद्द्वेलित करते शब्द ....बेहतरीन रचना ....जेन्नी जी ...

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सुमित प्रताप सिंह,
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